Sunday, January 19, 2014

तुम

भटकते रहे थे अकेले
मंज़िल की तलाश में ।
पा जायेंगे इक दिन लक्ष्य
यह उम्मीद ले हर साँस में ।।

अनेक कोशिशों के बाद
मिली हमें मंज़िल की डगर ।
हौसले थे बुलंद
मगर अनजाना था सफर ।।

बढायें सैकड़ों कदम
पर फासला कम न दिखता था ।
पहुंचेंगे शिखर पर
ऐसा दम न दिखता था ।।

आँिधयों ने भयभीत िकया
तुफानों ने चटायी धूल ।
मानो अकेले लड़ पाने का
िनश्चय थी एक भारी भूल ।।

पराजय अवश्यंभावी देख मेरा मन
ढूंढता था जब िकसी का साथ ।
मेरे पुण्य कर्मों ने िकया पुरस्कृत 
और तुमने थामा मेरा हाथ ।।

"चलती हूँ मैं तुम्हारे संग"
कानों मे मेरे पड़ी यह आवाज़ ।
बनती हूँ सारथी तुम्हारी
करो युद्ध का िफर आगाज़ ।।

तुम जो संग चली हमारे
शोलों, शूलों को हमने नष्ट िकया ।
अभय प्राप्त मैं तुम्हारी शक्ति से
बाधा िवघ््नो़ं को ध्वस्त िकया ।।

सुगम बनाया तुमने सफर यह
तुम हो तो हम समर्थ हैं ।
चलो जो तुम संग हमारे
तभी मंिज़ल को पाने का भी अर्थ है ।।