देखता हूँ उस वृद्ध भिक्षु को,
अपंग, असहाय, अक्षम!
दो पैसों कि आस में न जाने कब से एक पैर पे खड़ा है,
फिर भी मेरा दुःख सबसे बड़ा है!!!
देखता हूँ उस माँ को,
लाचारी और गरीबी से अभिशप्त!
शिशुओं कि क्षुधा माँ कि आंखों से अश्रु बनके उमड़ा है,
फिर भी मेरा दुःख सबसे बड़ा है!!!
देखता हूँ उस पिता को,
झुके हुए कांधों पे जवान बेटी का बोझ!
दहेज़ के अभाव में अविवाहित रह गयी अपनी बच्ची के दुर्भाग्य से डरा है,
फिर भी मेरा दुःख सबसे बड़ा है!!!
देखता हूँ उस विधवा को,
कल की नव विवाहिता के हाथों में अपने पति का शव!
इस छोटी सी उम्र में अकेली वह, अभी तो पूरा जीवन पड़ा है,
फिर भी मेरा दुःख सबसे बड़ा है!!!
देखता हूँ उस नन्हें बालक को ,
हाथों में पुस्तक कि जगह चाय की केतली!
बीमार माँ की दवा के लिए अभी पैसा नही जुगड़ा है,
फिर भी मेरा दुःख सबसे बड़ा है !!!
क्या करूं उस भिक्षु के लिए, उस माँ, उस पिता के लिए,
मुक्त करूं कैसे उस विधवा को, उस बालक को उनके कष्टों से ?
न जाने ऐसे कितने दुखों से भरी यह धरा है!
इसलिए मेरा दुःख सबसे बड़ा है, इसलिए मेरा दुःख सबसे बड़ा है !!!
Thursday, October 05, 2006
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